मेरे हिस्से की ज़मीन बंजर थी, मैं वाकिफ ना थाबे-सबब इलज़ाम मैं देता रहा बरसात को..
काश एक ख्वाहिश पूरी हो इबादत के बगैर,
वो आके गले लगा ले मेरी इजाजत के बगैर।
रोज़ इक ताज़ा शेऱ कहां तक लिखूं तेरे लिए,
तुझमें तो रोज़ ही एक नयी बात हुआ करती है…
जिंदगी एक सजासी हो गई है,
गम के सागर मे कुछ इस कदर खो गयी है,
तुम आजाओ वापिस ये गुजारिश है मेरी,
शायद मुझे तुम्हारी आदत सी हो गई है ।
चाहत तुम्हारी - रविवार की तरहहकीकत जिंदगी - सोमवार की तरह...!!