कुछ अल्फ़ाज़ की तरतीब से बनती है शायरी
कुछ चेहरे भी मुकम्मल ग़ज़ल हुआ करते हैं
खैरात में मिली ख़ुशी मुझे अच्छी नहीं लगती ग़ालिब,मैं अपने दुखों में रहता हु नवावो की तरह...
जिस प्रभात से, परमात्मा का स्मरण हो जाये,
वह प्रभात, सुप्रभात हो जाता है।
वो अपनी ज़िंदगी में हुआ मशरूफ इतना;
वो किस-किस को भूल गया उसे यह भी याद नहीं।
यूं तो तेरी महफिल में हमे चाहने वालो की कमी नहीं,पर हम तुझे चाहने में कोई खता करें ये भी तो हमें गवारा नही।