खिड़कियाँ कमरों की थोड़ी खोलते क्यों नहीं,
बहते मंद समीर से थोड़ा मिलते क्यों नहीं l
नई सुबह में नई बात सोचों,
नए विचारों के साथ खुद से मिलते क्यों नहीं l
शुभ प्रभात
चलो फ़िर से हौले से मुस्कुराते हैं,बिना माचिस के ही लोगों को जलाते हैं।
शायर तो हम
“दिल” से है….
कमबख्त “दिमाग” ने
व्यापारी बना दिया.
तेरी हर अदा मोहब्बत सी लगती हैं
एक पल की भी जुदाई मुद्दत सी लगती हैं
पहले नहीं सोचा था अब सोचने लगे हैं
जिंदगी में हर पल तेरी जर्रूरत सी लगती है
तुझे चाहता रहा मै इस कदर,
के दुनिया व् भुला बैठा,
तेरी एक हसी के बदले,
अपनी ज़िन्दगी भुला बैठा