कांटे समझ रहे थे हमारा है दबदबा…
शाखें झुकी हुई थीं फूलों के बोझ से
वो मुस्कुरा के मुकरने
की अदा जानता है
मैं भी आदत बदल
लेता तो सुकून में होता
अब ये हसरत है कि सीने से लगाकर तुझकोइस क़दर रोऊँ की आंसू आ जाये
अरमान ही बरसो तक जला करते है हमेशा ,
इंसान तो इक पल मे खाक हो जाता है !!
अपने साये से भी अश्कों को छुपा कर रोना
जब भी रोना तो चिरागों को बुझा कर रोना
जहाँ चोट खाना वहां मुस्कुराना
मगर इस अदा से के रोये सारा ज़माना