तुम्हे जो याद करता हुँ, मै दुनिया भूल जाता हूँ ।तेरी चाहत में अक्सर, सभँलना भूल जाता हूँ ।
मेरी सुबह की टहल में,
एक अलग सा सुकून है ।
बादलों की आस्तीन से
जब धूप झाँकती है
खेलती है सतोलिया
कुछ टूटे बिखरे टुकड़ो संग ।
मैं चल के पहुँचता हूँ
दरख्तों के आसेब में
जहाँ मेरी परछाई
मुझ से ज़्यादा खुशनुमा है ।।
रात चुपचाप दबे पाँव चली जाती हैरात ख़ामोश है रोती नहीं हँसती भी नहींकांच का नीला सा गुम्बद है, उड़ा जाता हैख़ाली-ख़ाली कोई बजरा सा बहा जाता है चाँद की किरणों में वो रोज़ सा रेशम भी नहीं चाँद की चिकनी डली है कि घुली जाती हैऔर सन्नाटों की इक धूल सी उड़ी जाती है काश इक बार कभी नींद से उठकर तुम भी हिज्र की रातों में ये देखो तो क्या होता है
“तेरी यादों के जो आखिरी थे निशान,दिल तड़पता रहा, हम मिटाते रहे...ख़त लिखे थे जो तुमने कभी प्यार में,उसको पढते रहे और जलाते रहे....”
मैंने दबी आवाज़ में पूछा - "मुहब्बत करने लगी हो?"नज़रें झुका कर वो बोली - "बहुत"