यात्रीगण कृपया ध्यान दे! देहरादून से चलकर नई दिल्ली को जाने वाले गाड़ी प्लेटफार्म नंबर दो से जाएगी.
जो भी देहरादून से हरिद्वार, रूड़की और मेरठ होते हुए नई दिल्ली जाना चाहते हैं कृपया प्लेटफार्म नंबर 2 पर चले जाये. रेलवे स्टेशन के दूसरे छोर पर खड़ी सुधा ने ये अनाउंसमेंट सुनी और तुरंत अपना सूटकेस खींचती हुई प्लेटफार्म नंबर 2 की ओर चल पड़ी. मैंने कितने बार मम्मी से बोला हैं कि सफ़र के लिए इतने सारे सामानों को न रखें, मैं अकेली इतना भरी सूटकेस नहीं ले जा सकती और आज ही इन कूलियों को हड़ताल पर जाना था. अपने मन में यही बुद्बुताते हुए वो तेज़ी से प्लेटफार्म नंबर 2 की तरफ बढ़ रही थीं. लेकिन मम्मी को कहाँ कुछ सुनाई देता हैं? वो तो बस अपनी ही चलाती हैं. मेरी बात तो कभी सुनती थोड़ी हैं? मैं कोई पहली बार तो दिल्ली जा नहीं रही हूँ? इन्हीं ख़्यालों में खोई हुई वो आख़िरकार प्लेटफार्म नंबर 2 पर पहुँच ही गई. उसने पहले ही टिकट कन्फर्म कर ली थी और धीरे से भीड़ को चीरती हुई अपनी सीट पर पहुँच गई. उफ़्फ़ हे भगवान! इतनी भीड़.....
सुधा ने अपना सूटकेस सीट के नीचे डाल दिया और शांति से अपनी सीट पर जाकर बैठ गई. वही हमेशा से उसकी पसंदीदा लोअर बर्थ सीट जो वो प्रीफर करती थी. एक बार तो उसने लोअर बर्थ के लिए लड़ाई भी कर ली थी. " हुआ कुछ यूँ था कि वो पीछे गर्मी के छुटियों में वापस देहरादून आ रही थी, उसे अपनी पसंदीदी सीट भी मिल गई थी अब आप ये सोच रहे होंगे की जब सीट मिल गयी थी तो लड़ाई क्यों? तो दरअसल सीट सिर्फ कागज़ के टिकट पर मिली थी लेकिन ये इंडिया हैं यहाँ लोगों को ये बात बहुत देर से समझ में आती हैं कि जिसके पास कागज़ हैं वहीं उस चीज़ का अधिकारी होता हैं. जब वो सीट के पास पहुंची तो देखा एक तकरीबन 30-32 साल का लड़का उसके सीट पर पैर फैलाये एकदम आराम से बैठा था. हेलो! मिस्टर! हेलो.... सुधा ने उसको कई बार पुकारा लेकिन वो लड़का कान में ईरफ़ोन लगाए हुए खिड़की से दूर हरे भरे खेतों को देख रहा था. सुधा को गुस्सा आ गया और उसने उसे झकझोर दिया. लड़के का ध्यान भंग हुआ और वो वापस ट्रेन में लौट आया, जी कहिये? अपने कान से ईरफ़ोन निकलते हुए बोला. ये मेरी सीट हैं आप गलत सीट पर बैठे हैं.. नहीं ये मेरी ही सीट हैं देखो बोगी नंबर 10 सीट नंबर 13 लोअर बर्थ. सुधा को बहुत हैरानी हुई लड़का जो डिटेल दे रहा था और वो भी सही, अब उसे ताजुब्ब हुआ कि ये कैसे हो सकता हैं? उसने फिर उस लड़के से कहा, नहीं ये मेरी सीट हैं और आप तुरंत यहाँ से उठ जाइये. लड़का भी बहुत ज़िद्दी था उसने बहुत ही आराम से कहा, जी बिलकुल नहीं ये मेरी सीट हैं और मैं नहीं उठूंगा.अब दोनों में तीख़ी नोक झोक शुरू हो गया और दोनों लड़ने लगे. हो हल्ला बढ़ा तो किसी पैसेंजर ने टीटी को बुलाया, हाँ क्या हुआ मैडम? टीटी ने आते ही सुधा से पूछा. देखिए न सर ये लड़का मेरे सीट पर बैठा हैं और उठ नहीं रहा हैं. टीटी लड़के से पूछा, क्या नाम हैं तुम्हारा? जी शेखर, लड़के ने जवाब दिया. टिकट देना? ये लीजिये. अरे ये कैसे हो सकता है दोनों को सेम सीट कैसे अलॉट हो सकती हैं? टीटी ने अपने मन में सोचा. काफी देर सोचने के बाद उसने दोनों की टिकट को गौर से देखा तो शेखर की टिकट पर लिखा था.
'आर ए सी', अरे मैडम आप दोनों को ये सीट आधी आधी शेयर करनी होगी क्योंकि ये आप दोनों को आधी आधी अलॉट हुई हैं. क्या? सुधा ने हैरानी से पूछा, शेखर भी थोड़ा से हैरान हुआ और सोचने लगा कि, ' तो इसका मतलब पूरा सफ़र इस नकचढ़ी लड़की के साथ काटना होगा?' सुधा ने टीटी से किसी और सीट के लिए रिक्वेस्ट की लेकिन पूरे ट्रेन में कोई भी सीट ख़ाली नहीं थी और मज़बूरन दोनों एक साथ शेयरिंग के लिए राज़ी हो गए. सुधा ने अपना सामान सीट के नीचे रखा और सीट के आधे हिस्से पर जाकर बैठा गई. लड़के ने थोड़ी शराफ़त दिखते हुए सुधा को खिड़की के पास वाला हिस्सा दे दिया और खुद दूसरी तरफ आकर बैठा गया. सुधा ने अपने हैंड बैग में से Eleven Minutes निकल कर विंडो का टेक लेकर पढ़ने लगी. तभी शेखर ने कुछ इंग्लिश में बुबुदाय, “In love, no one can harm anyone else; we are each responsible for our own feelings and cannot blame someone else for what we feel.”
सुधा चौंक गई वो सोचने लगी ये लाइन तो अभी उसने कुछ मिनट पहले पढ़ी थी. कहीं ये मेरी किताब में झांक तो नहीं रहा हैं? वो यही सोच रही थी कि शेखर ने एक बार फिर से कुछ लाइन बुदबुदाई “Sometimes life is very mean: a person can spend days, weeks, months and years without feeling new. Then, when a door opens - a positive avalanche pours in. One moment, you have nothing, the next, you have more than you can cope with.”
Paulo Coelho, किताब हैं न ये? शेखर ने पूछा. सुधा ने कुछ जवाब नहीं दिया और अपनी किताब में ही घूर रही थी. शेखर ने फिर से पूछा लेकिन इस बार सुधा ने बेरूख़ी से जवाब दिया, किताब के फ्रंट पर लिखा हुआ हैं. दिखाई नहीं देता? और ये तुम सुना किसे रहे हो? मुझे पढ़ने दो. ओके! व्हाई आर यू बीइंग सो Rude?
सुधा ने कोई जवाब नहीं दिया. कुछ देर बाद सुधा को भूख लगी और उसने अपने बैग में से माँ के हाथ का बना हुआ आलू के परांठे निकाले और सीट के सामने वाले स्टैंड पर रख कर खाना शुरू किया. सुधा ने अभी एक दो बाईट ही खाई होंगी की उसने देखा कि शेखर चुपके से उसकी तरफ एकटक देख रहा था. उसने इशारे में पूछा खाना हैं क्या? सुधा बाहर से जितने गुस्सैल लगती थी अंदर से उससे कहीं ज़्यादा सरल और भोली थी. उसने शेखर की तरफ एक परांठा बढ़ा दिया, शेखर ने उसे तुरंत कुछ कहे ले लिया. उसे लगा मानों पपीहे पक्षी को स्वाति नक्षत्र में बरसने वाले पानी की बूंद मिल गई हो. दोनों ने खाना खाया उसके बाद शेखर वहाँ से कुछ देर के लिए ट्रेन के गेट पर जाकर खड़ा हो गया. उसने जेब से सिगरेट और लाइटर निकली और गेट के पास ही बैठकर पीने लगा. कान में लगे हुए ईरफ़ोन से उसके कानों में किशोर कुमार के पुराने एवरग्रीन सांग्स के लिस्ट में से ये रातें ये मौसम ये नदी का किनारा, ये चंचल हवा..... का मधुर संगीत मानों उसे स्वर्ग में बजने वाले वीणा और शास्त्रीय संगीत की अनुभूति करा रहे थे. रात में ट्रेन कोसों दूर की वीरानियों को चीरते हुए तेज़ी से उन दो पटरियों पर दौड़ रही थी जो आपसे में कभी भी नहीं मिलती हैं लेकिन एक दूसरे का साथ सदियों से निभाते हुए आ रहे थे. ये दो पटरियों लोगों को अलग अलग तरीके से नज़र आती हैं, शेखर इन्हें उन दो प्रेमियों की तरह समझता था जो समाज और परिवार की शर्तों और ज़रूरतों के लिए अपने ख़्वाब से इतने ओझल हो जाते है कि कभी अपने इश्क़ का इज़हार कभी कर ही नहीं पाते.
इसी तरह की बातों को सोचते हुए उसने अपनी पूरी सिगरेट ख़त्म की और वापस अपने शेयरिंग सीट की तरफ बढ़ गया. जब वो वहां पहुँच तो अपने सीट को एकटक देखता ही रह गया.
सुधा पूरी सीट पर सो गई थीं, और उसकी किताब नीचे गिरी हुई थी . उसने धीरे से जाकर किताब को उठाकर उसके सर के पास रखने लगा, तभी सुधा ने करवट ली और उसका पूरा बाल बिख़र कर शेखर के गालों पर बिखर गए. शेखर मानों ट्रेन की उस बोगी से कहीं दूर पहुँच गया था, उसकी यादों में से एक हल्का धुंधला सा कोई ख़्वाब उसके सामने आ गया. उसने किताब उसी हालत में छोड़ कर उस बोगी से वापस वहीं गेट के सीढ़ियों पर आ गया. पता नहीं क्यों अचानक उसकी धड़कने तेज़ हो गयी थी ऐसा लगा उसने कोई बुरा ख़्वाब देख लिया हो. वो एक बुरा ख़्वाब ही तो था, सुधा की बालों से उसे अपनी बीती ज़िंदगी याद आ गई. उसकी एक्स मीरा........ उसने एक बार फिर से सिगरेट जलाई और पूरी रात वहीं पर बैठे बैठे गुज़ार दी. सुबह जब ट्रेन नई दिल्ली पहुंची तब सुधा जाग गई थी,उसने देखा तो उसे शेखर कहीं नहीं दिखा और उसने समझा की वो शायद बीच में उतर गया. उसने अपना सामान उठाया और ट्रेन से नीचे उतर गई, वो भीड़ को चीरते हुए बाहर आ रही थी कि उसने अचानक शेखर को देखा. वो भीड़ में जल्दी जल्दी चलने लगी,लेकिन जब वो पास गई तबतक शेखर वहां से ना जाने कब भीड़ में गिरी सुई की तरह कहाँ गुम हो गया ये उसे समझ नहीं आया. उसने फिर उदास मन से बाहर आकर कैब किया और अपनी मंज़िल की तरफ चली गई."
इसी दास्ताँ को सोचते हुए उसका सफ़र बीत गया और वो नई दिल्ली पहुँच गई. वैसे तो इस बात को अब 1 साल 3 महीनें 5 दिन बीत गए थे लेकिन आज भी जब सुधा ट्रेन में सफ़र करती हैं तो उसे लगता हैं कि अभी इसी भीड़ में से निकल कर शेखर उसके सामने आ जायेगा और वो उससे कहेगी कि, 'शेखर........