दूसरी पुतली चित्रलेखा राजा भोज को जो कथा सुनाई वो इस प्रकार हैं..
राजा विक्रमादित्य एक दिन शिकार खेलने गए और दूर घने जंगल में उन्होंने सरोवर किनारे के महात्मा को तपस्या करते हुए देखा. उन्होंने सरोवर के पास जाकर महात्मा को प्रणाम किया और उनका कुशल क्षेम पूछा. महात्मा राजा विक्रम से मिलकर बहुत प्रसन्न हुए और उन्हें एक फल दिया और कहा, ''हे राजन! ये एक चमत्कारी फल है, इससे खाने वाली स्त्री को एक यशस्वी और कीर्तिवान पुत्र की प्राप्ति होगी. अतः ये फल आप अपने साथ ले जाइये.''
विक्रम ने उस फल को स्वीकार कर लिया और वापस आपने राज्य लौटने लगे, तभी रास्ते में उन्हें एक स्त्री दिखाई दी जो कुँए में कूदकर जान देने जा रही थी. राजा ने उसे बचाया और उसके इस तरह मरने का कारण पूछा. उसने बताया कि, ''मुझे पुत्र नहीं हुआ और इस कारण से मेरे पति मुझसे नाराज़ है और मुझे जान से मार देने की धमकी दी हैं.''
राजा विक्रमादित्य ने वो चमत्कारी फल उसे देकर वापस अपने महल चले आये. कई दिनों बाद एक ब्राह्मण राजा के दरबार में आया और उसने विक्रमादित्य को वहीं चमत्कारी फल भेंट की. राजा ये देखर उस स्त्री के बारे में सोचने लगे और उस फल को स्वीकार कर लिया. रात्रि को उस फल को उन्होंने अपनी प्रिय रानी को दे दिया. लेकिन रानी और राज्य के कोतवाल का अवैध सम्बन्ध थे इसलिए रानी ने उस फल को कोतवाल को दे दिया और कहा, ''मैं चाहती हूँ कि तुम्हारे घर एक बलवान और यशस्वी पुत्र पैदा हो.'' कोतवाल ने वो फल एक वेश्या को दे दिया क्योंकि वो उस वेश्या को अधिक चाहता था. वेश्या ने सोचा ये फल मेरे किसी काम का नहीं है, क्यों ना ये फल राजा विक्रम को दे दिया जाये जिससे राज्य में एक अच्छे युवराज का जन्म हो और उसने ये फल राजा को अगले दिन भेंट कर दी. राजा फल देखकर हैरान हो गए और उन्होंने पता लगा तो उन्हें रानी और कोतवाल के अवैध संबंधों के बारे में पता चला. इससे वो इतने दुःखी हुए की उन्होंने राज्य का परित्याग कर दिया. दूर जंगल में जाकर तपस्या करने लगे. कई साल बीत गए, देवता भी राजा विक्रमादित्य को पसंद करर्ते थे इसलिए देवराज इंद्र ने अपने एक देवदूत को राज्य की रक्षा के लिए भेज दिया और उस दूत ने राजा विहीन उस राज्य को अपने माया जाल से घेर दिया. कई वर्षों बाद राजा विक्रमादित्य वापस अपने राज्य में वापस आएं तो उस देवदूत ने उन्हें नहीं पहचाना और महल के द्वार पर ही रोक दिया. राजा और देवदूत में भयंकर युद्ध हुआ और राजा ने ने देवदूत को पराजित किया. देवदूत ने राजा विक्रमादित्य को पहचान लिया और उन्हें एक रहस्य की बात बता कर वापस देवलोक चला गया. उसने राजा से बताया कि ''एक सन्यांसी के भेष में उनका शत्रु यहाँ तपस्या कर रहा हैं और आपकी बलि देना चाहता हैं.''
राजा विक्रमादित्य अपने राज्य में एक बार फिर से चैन से राज्य करने लगे, उनकी वो दुष्ट रानी ने भी ख़ुदकुशी कर ली थी. एक दिन वो सन्यासी राजा के पास आया और उनको एक ऐसा चमत्कारी फल दिया जिसमें से बहुमल्य रत्न निकलता था. राजा से उस भेंट के बदले उसने एक बेताल नाम के प्रेत को लाने के लिए राजा को बेतालपुरी भेज दिया. राजा विक्रमादित्य से बेताल 24 बार बचकर निकल जाता लेकिन अंत में राजा विक्रम ने उसे पकड़ लिया और उसे सन्यासी के पास ले आएं. बेताल ने रास्ते में सन्यासी का मक़सद बता दिया तब राजा को देवदूत की बात याद आई और उस सन्यासी का बलि माँ काली को चढ़ा दी. माँ काली विक्रमादित्य से बहुत प्रभावित हुई और उन्हें दो बेताल भेंट किये. ये बेताल राजा को लेकर कहीं भी एक ही क्षण में लेकर जा सकते थे और बहुत ही मायावी थे. राजा ने माँ काली को प्रणाम कर वापस अपने राज्य लौट आये.