महाभारत युद्ध का सबसेबड़ा दानी और सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर अंगराज कर्ण को कहा जाता है, जिसे महादानी कर्ण, राधे, वायुसेना और सूर्यपुत्र कर्ण के नाम से भी जाना जाता है. अंगराज कर्ण पांडव के बड़े भाई होने के बावजूद उन्होंने कई सारे अपमान और तिरस्कार को सहा. उन्हें कई बार निंदा और अपने के कड़वे घूंट पीने पड़े. कर्ण भगवान सूर्य की कृपा से कुंती के कान से पैदा हुए थे इस वजह से उनका नाम कर्ण पड़ा था जिनका पालन-पोषण पितामह भीष्म के सारथि और उसकी पत्नी राधा ने किया इसलिए उन्हें राधे के नाम से भी जाना जाता है.
सभी को पता है कि कर्ण के पास जन्म से ही कवच और कुण्डल था. लेकिन बहुत कम लोग ये जानते है कि इस के साथ उनके अंदर एक राक्षस का भी अंश था. जिसकी वजह से उन्हें हर पल अपमान सहना पड़ा.
तो आखिर कौन था वो राक्षस और कैसे उसका अंश कर्ण में आया इसके पीछे की कहानी इस प्रकार है...
त्रेतायुग में दंबोधव नाम का एक बहुत शक्तिशाली राक्षस था. उनसे सूर्य देव की उपासना करके उनसे अमर होने का वरदान माँगा लेकिन सूर्य देव ने उसे मना कर दिया तब उसने सूर्य देव से हज़ार ऐसे कवच की मांग कि जो बहुत शक्तिशाली हो. जिसके अंदर अमोघ से अमोघ शस्त्र समा जाये. उसे सिर्फ वहीं इंसान तोड़ पाए जिसने हज़ार वर्षों तक घोर तपस्या की हो और उसने तोड़ने वाले की तुरंत मृत्यु हो जाये. सूर्य देव ने उसे ऐसा वरदान प्रदान कर दिया. इसके बाद उसने पूरी पृथ्वी पर हाहाकार मचा दिया. उसने हर तरफ निर्दोष ऋषि-मुनियों को मारना शुरू कर दिया.
उसके आतंक को खत्म करने के लिए दक्ष की पुत्री मूर्ति और ब्रह्मा के पुत्र धर्म की पत्नी ने भगवान विष्णु की तपस्या करके उन्हें अपने दो जुड़वाँ पुत्रों के रूप में जन्म लेने की कामना की . विष्णु के वरदान से उनके घर दो जुड़वाँ बच्चों ने जन्म लिया नर-नारायण. ये दोनों एक जैसे दिखते थे साथ ही साथ इन दोनों के भीतर एक ही आत्मा का वास था. जब ये बड़े हुए तब नर ने दंबोधव को युद्ध के लिए ललकार और नारायण गहरी तपस्या में लीन हो गए. हज़ार वर्षों को तपस्या जैसे पूर्ण हुई नर ने तुरंत उसके एक कवच को तोड़ दिया. लेकिन उनकी मृत्यु हो गई. तब नारायण ने उन्हें महामृत्युंजय मन्त्र से पुनः जीवित कर दिया. हज़ार साल की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें ,महामृत्युंजय मन्त्र की सिद्दी प्रदान की थी. एक बार फिर दोनों में युद्ध हुआ. इस प्रकार फिर एक कवच टूट गया और नर मर गए. नारायण ने तुरंत फिर उन्हें जीवित करके पुनः साधना में लग गए. ऐसे करते करते नर ने दंबोधव के 999 कवच को तोड़ दिया और जब एक मात्र कवच बच गया तब वो भगवान सूर्य के शरण में जाकर प्राण रक्षा की प्रार्थना की और सूर्य ने उसे संरक्षण दे दी. नर और नारायण ने ये देखकर सूर्य को श्राप दे दिए कि जिस प्रकार से उन्होंने आज इस निशाचर की रक्षा करके निशाचरी का कृत्य किया है उस पाप का दण्ड वो जरूर पाएंगे. कालांतर में जब सूर्य देवता के अंश कर्ण ने जन्म लिया तब इस असुर का भी एक अंश उस कवच के रूप में कर्ण को मिला. द्वापर युग में नर और नारायण ने ही भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के रूप में जन्म लिया. देवराज इंद्र को इस बात की जानकारी थी अगर उनका पुत्र अर्जुन इस कवच को तोड़ देगा तब उसकी मृत्यु हो जाएगी इस लिए उन्होंने छल से कर्ण के कवच और कुण्डल मांग लिया. इस प्रकार से कर्ण ने अपमान को सहा.