एक बार अर्जुन अपने बड़े भाई युधिष्ठिर की दानशीलता का बखाना कर रहे थे. उसी समय वहाँ बैठे श्रीकृष्ण ने कहा, निःसन्देश सम्राट युधिष्ठिर एक धर्मपरायण और दानी व्यक्ति है लेकिन पार्थ अंगराज कर्ण इस सम्पूर्ण जगत का महादानी व्यक्ति है. कृष्ण के मुख से कर्ण की प्रशंसा सुनकर अर्जुन ने कहा, हे माधव अगर आपने कुछ कहा है तो जरूर किसी कारणवश ही ऐसा कहा होगा लेकिन मैं भी जानना चाहता हूँ कि इस बात को मैं अपने आँखों के सामने सिद्ध होता हुआ देखूँ.
श्रीकृष्ण ने उनकी मंशा समझ ली और उसके बाद उन्होंने एक ब्राह्मण का वेष बनाकर युधिष्ठिर के महल के पास पहुँच गए और जब युधिष्ठिर को इस बात की जानकारी मिली तब वो अतिथि के सेवा सत्कार के लिए महल से बाहर आये तब ब्राह्मण ने कहा, हे राजन मैं आप से कुछ माँगने आया हूँ. युधिष्ठिर ने कहा, हे ब्राह्मण देव आप निसंकोच माँगिये मैं हर सम्भव प्रयत्न करूँगा की आपको दान देकर विदा करूँ. तब उस ब्राह्मण ने कहा, महाराज मुझे एक सेर चंदन की लकड़ियाँ चाहिए किन्तु याद रहे मैं यज्ञ के लिए लायी गई लकड़ियाँ स्वीकार नहीं करूँगा. अब युधष्ठिर धर्म संकट में पड़ गए और बाहर बहुत तेज वर्षा हो रही थी इस दशा में युधिष्ठिर ने दान न दे पाने के कारण उन से क्षमा माँगते हुए कहा, आप कल तक के लिए मेरे महल में विश्राम कीजिए कल मई आपके लिए सुखी चंदन की लकड़ियाँ दे दूंगा.
लेकिन श्रीकृष्ण वहाँ से बिना कुछ कहे चले गए. इसके बाद वो अर्जुन के साथ अंग देश में पहुँच गए. रात्रि में जब कर्ण को सूचना मिली कि कोई याचक मुझे दान माँगने के लिए इसी वर्षा ऋतु में भीगता हुआ आया है तब वो जल्दी से महल के बाहर आ गए. ब्राह्मण को प्रणाम किया और उनसे इच्छित वस्तु माँगने को कहा. ब्राह्मण ने वहीं दान कर्ण से भी माँगा तब कर्ण ने कहा, विप्र वर आप रुकिए मैं अपना धनुष बाण ले आऊं. थोड़ी देर बाद कर्ण अपने धनुष के साथ वापस आये और उन्होंने अपने महल का द्वार उस बाण से तोड़ डाला और उसकी लकड़ी उन्हें अर्पित की. लेकिन ब्राह्मण ने उसे अस्वीकार कर दिया फिर कर्ण ने कहा, हे ब्राह्मण देव क्षमा करे मैं अभी आप को पवित्र चंदन की लकड़ी देता हूँ और उसने अपने शय्या को भी तोड़ डाला और कहा, हे ब्राह्मण देव मेरे कवच और कुण्डल के कर्ण ये शय्या एक दम पवित्र है आप इस को स्वीकार कीजिये. तब श्रीकृष्ण ने कहा अगर मैं ये भी अस्वीकार कर दूँ तो? तब मैं अपने सम्पूर्ण जीवन के पुण्य कर्मों के बदले देवताओं का आवाहन करके उनसे आपके लिए चंदन की लकड़ियाँ मांग लेता. फिर श्रीकृष्ण ने कहा अगर देवता तुम्हारी प्रार्थना अस्वीकार कर देते तब? तब मैं श्रीकृष्ण से निवेदन करता और अगर वो मेरे सामर्थ के बदले में भी लकड़ियाँ देने को स्वीकार कर देते तभी मैं सामर्थ खो कर ये करने को तैयार हूँ. अंत में उस ब्राह्मण ने उस दान को स्वीकार किया. महल से बाहर आके उन्होंने अर्जुन को देखा. तब अर्जुन ने कहा, आप सही कहते थे कर्ण ही महादानी है.