जरूर पढ़ियेगा महादेवी वर्मा की ये ​5 बेहतरीन कविताएं

5 Best poetry of Mahadevi verma

हिंदी भाषा और साहित्य से जुड़े हुए लोग महादेवी जी के बारे में जरूर जानते होंगे. महादेवी वर्मा हिंदी साहित्य की बेहतरीन कवित्रीय मानी जाती हैं. वो हिन्दी की सर्वाधिक प्रतिभावान कवयित्रियों में से एक थीं. 

इनको आधुनकि युग की मीरा भी कहा जाता है. हिंदी की कवित्रियों में इनको भी सुभद्रा कुमारी चौहान की ही तरह ही ख़्याति प्राप्त हैं. छायावाद के महान कवि निराला ने उन्हें “हिन्दी के विशाल मन्दिर की सरस्वती”भी कहा है. आज हम आपको महादेवी वर्मा की 5 बेहतरीन कविताओं के बारे में बताने जा रहे हैं. जिन्हें आपको जरूर पढ़ना चाहिए.... 

  • पंथ होने दे अपरचित 

पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला

घेर ले छाया अमा बन

आज कंजल-अश्रुओं में रिमझिमा ले यह घिरा घन

और होंगे नयन सूखे

तिल बुझे औ’ पलक रूखे

आर्द्र चितवन में यहां

शत विद्युतों में दीप खेला

अन्य होंगे चरण हारे

और हैं जो लौटते, दे शूल को संकल्प सारे

दुखव्रती निर्माण उन्मद

यह अमरता नापते पद

बांध देंगे अंक-संसृति

से तिमिर में स्वर्ण बेल

दूसरी होगी कहानी

शून्य में जिसके मिटे स्वर, धूलि में खोई निशानी

आज जिस पर प्रलय विस्मित

मैं लगाती चल रही नित

मोतियों की हाट औ’

चिनगारियों का एक मेला

हास का मधु-दूत भेजो

रोष की भ्रू-भंगिमा पतझार को चाहे सहे ज

ले मिलेगा उर अचंचल

वेदना-जल, स्वप्न-शतदल

जान लो वह मिलन एकाकी

विरह में है दुकेला!

जरूर पढ़िए दुष्यंत कुमार की ये कुछ चुनिंदा कविताएं

  • जो तुम आ जाते एक बार 

जो तुम आ जाते एक बार

कितनी करूणा कितने संदेश

पथ में बिछ जाते बन पराग

गाता प्राणों का तार तार

अनुराग भरा उन्माद राग

आँसू लेते वे पथ पखार

जो तुम आ जाते एक बा

हँस उठते पल में आर्द्र नयन

धुल जाता होठों से विषाद

छा जाता जीवन में बसंत

लुट जाता चिर संचित विराग

  • शेष रात कितनी?

पूछता क्यों शेष कितनी रात ?

अमर सम्पुट में ढला तू,

छू नखों की कांति चिर संकेत पर जिन के जला तू,

स्निग्ध सुधि जिन की लिये कज्जल-दिशा में हँस चला तू !

परिधि बन घेरे तुझे वे उँगलियाँ अवदात !

झर गए खद्योग सारे;

तिमिर-वात्याचक्र में सब पिस गये अनमोल तारे,

बुझ गई पवि के हृदय में काँप कर विद्युत-शिखा रे !

साथ तेरा चाहती एकाकिनी बरसात !

व्यंगमय है क्षितिज-घेरा

प्रश्नमय हर क्षण निठुर-सा पूछता परिचय बसेरा,

आज उत्तर हो सभी का ज्वालवाही श्वास तेरा !

छीजता है इधर तू उस ओर बढ़ता प्रात !

प्रणत लौ की आरती ले,

धूम-लेखा स्वर्ण-अक्षत नील-कुमकुम वारती ले,

मूक प्राणों में व्यथा की स्नेह-उज्ज्वल भारती ले,

मिल अरे बढ़, रहे यदि प्रलय झंझावात !

कौन भय की बात ?

पूछता क्यों शेष कितनी रात?

  • मैं नीर भरी दुख की बदली!

मैं नीर भरी दुख की बदली!

स्पन्दन में चिर निस्पन्द बसा

क्रन्दन में आहत विश्व हँसा

नयनों में दीपक से जलते,

पलकों में निर्झारिणी मचली!

मेरा पग-पग संगीत भरा

श्वासों से स्वप्न-पराग झरा

नभ के नव रंग बुनते दुकूल

छाया में मलय-बयार पली।

मैं क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल

चिन्ता का भार बनी अविरल

रज-कण पर जल-कण हो बरसी,

नव जीवन-अंकुर बन निकली!

पथ को न मलिन करता आना

पथ-चिह्न न दे जाता जाना;

सुधि मेरे आगन की जग में

सुख की सिहरन हो अन्त खिली!

विस्तृत नभ का कोई कोना

मेरा न कभी अपना होना,

परिचय इतना, इतिहास यही-

उमड़ी कल थी, मिट आज चली!

  • आशा

वे मधुदिन जिनकी स्मृतियों की

धुँधली रेखायें खोईं,

चमक उठेंगे इन्द्रधनुष से

मेरे विस्मृति के घन में।

झंझा की पहली नीरवता—

सी नीरव मेरी साधें,

भर देंगी उन्माद प्रलय का

मानस की लघु कम्पन में।

सोते जो असंख्य बुदबुद से

बेसुध सुख मेरे सुकुमार,

फूट पड़ेंगे दुखसागर की

सिहरी धीमी स्पन्दन में।

मूक हुआ जो शिशिर-निशा में

मेरे जीवन का संगीत,

मधु-प्रभात में भर देगा वह

अन्तहीन लय कण कण में।