जौन एलिया अपने इन्तकाल के आज लगभग दो दशकों के बाद एक बार फिर से अपने कलामों और अशआरों के जरिए ज़िंदा हो गए हैं. इनका जन्म 14 दिसंबर 1931 में यूपी के अमरोहा में हुआ था.
सर जौन एलिया के शेर आज के समय में सोशल मीडिया में सबसे चर्चित हैं. इसके एक एक शेर लोगों के द्वारा सराहे और पढ़े गए हैं. सभी लोग इस बात को जानते है कि जौन एलिया एक ऐसे शायर थे जो ख़ून थूकते थे लेकिन इसके पीछे के गहरे राज़ को बहुत ही कम लोग जानते हैं.
जौन एलिया आज़ादी की 16 साल पहले पैदा हुए था और उनके किशोरावस्था तक उन्होंने आज़ादी के लिए क़ुर्बान होते कई नवजवानों को देखा था. इन्हीं कारणों से उनके दो ही शौक थे. पहला- देश के लिए क़ुर्बान हो जाना, जोकि कभी पूरा न हो सका और इसका सबसे बड़ा फायदा उर्दू साहित्य को मिला.
दूसरा खून थूकने का. असल में सर जौन एलिया टीबी के मरीज थे. साथ ही उन्होंने इसका ज़िक्र अपने नज़्मों और कलाम में बेहतरीन ढ़ंग से किया हैं. जिसकी नजर दो शेर इस प्रकार उन्होंने कहे है कि -
मेरे हुजरे का क्या बंया कि यहाँ
ख़ून थूका गया शरारत में
रंग हर रंग में दाद तलब
ख़ून थूकूं तो वाह वाह कीजिए
आज हम आपके लिए लेकर आये है जौन एलिया के कुछ बेहतरीन नज़्में और शायरी जो उन्होंने जितनी शिद्दत लिखा था. उससे कहीं ज्यादा शिद्द्त से लोगों ने उसे पढ़ा और सराहा हैं. तो आपके पेशे ख़िदमत है जौन साहब के वो दो बेहतरीन नज़्में.........
- काम की बात मैंने की ही नहीं
काम की बात मैं ने की ही नहीं
ये मिरा तौर-ए-ज़िंदगी ही नहीं
ऐ उमीद ऐ उमीद-ए-नौ-मैदाँ
मुझ से मय्यत तिरी उठी ही नहीं
मैं जो था उस गली का मस्त-ए-ख़िराम
उस गली में मिरी चली ही नहीं
ये सुना है कि मेरे कूच के बा'द
उस की ख़ुश्बू कहीं बसी ही नहीं
थी जो इक फ़ाख़्ता उदास उदास
सुब्ह वो शाख़ से उड़ी ही नहीं
मुझ में अब मेरा जी नहीं लगता
और सितम ये कि मेरा जी ही नहीं
वो जो रहती थी दिल-मोहल्ले में
फिर वो लड़की मुझे मिली ही नहीं
जाइए और ख़ाक उड़ाइए आप
अब वो घर क्या कि वो गली ही नहीं
हाए वो शौक़ जो नहीं था कभी
हाए वो ज़िंदगी जो थी ही नहीं
- तुम जब आओगी तो खोया हुआ पाओगी मुझे
तुम जब आओगी तो खोया हुआ पाओगी मुझे
मेरी तन्हाई में ख़्वाबों के सिवा कुछ भी नहीं
मेरे कमरे को सजाने की तमन्ना है तुम्हें
मेरे कमरे में किताबों के सिवा कुछ भी नहीं
जो गुज़ारी न जा सकी हम से
हम ने वो ज़िंदगी गुज़ारी है
मैं भी बहुत अजीब हूँ इतना अजीब हूँ कि बस
ख़ुद को तबाह कर लिया और मलाल भी नहीं
ये मुझे चैन क्यूँ नहीं पड़ता
एक ही शख़्स था जहान में क्या
ज़िंदगी किस तरह बसर होगी
दिल नहीं लग रहा मोहब्बत में
बहुत नज़दीक आती जा रही हो
बिछड़ने का इरादा कर लिया क्या
क्या सितम है कि अब तिरी सूरत
ग़ौर करने पे याद आती है
मुस्तक़िल बोलता ही रहता हूँ
कितना ख़ामोश हूँ मैं अंदर से (*मुस्तक़िल= लगातार)
किस लिए देखती हो आईना
तुम तो ख़ुद से भी ख़ूबसूरत हो
सारी दुनिया के ग़म हमारे हैं
और सितम ये कि हम तुम्हारे हैं
और तो क्या था बेचने के लिए
अपनी आँखों के ख़्वाब बेचे हैं
जौन एलिया का 8 नवंबर साल 2002 में इनका निधन कराची में हो गया था.