बेकसूर कोई नहीं इस ज़माने मे,
बस सबके गुनाह पता नहीं चलते.
हम बेक़सूर लोग भी बड़े दिलचस्प होते हैं,
शर्मिंदा हो जाते हैं ख़ता के बग़ैर भी !!
यही तो गुनाह था मेरा की मैं बेकसूर था
ना चाहते हुए उनसे बहुत दूर था
चाहत थी बस उनको पाने की
मगर क्या करता दुनिया को ये नामंज़ूर था
वो मेरा है तो वो मुझसे दूर क्यूँ हैं?
दूर रहकर जीने को हम मजबूर क्यूँ हैं?
गुनाह(प्यार)हम दोनो ने किया था एक जैसा,
तो मेरा कसूर क्यूँ है और वो बेकसूर क्यूँ है..
सारे रिश्ते टूट के चूर चूर हो गये,
वो धीरे धीरे हमसे दूर हो गये,
मेरी ख़ामोशी मेरी गुनाह बन गयी,
और
वो गुनाह करके भी बेकसूर हो गये.