Mahakaal ke Nashe mein Chur rahata hun
Jai Mahakaal
आदमी की दिलेरी खून में होती है,
इसके कैप्सूल नहीं मिलते
आसमाँ इतनी बुलंदी पे जो इतराता है
भूल जाता है ज़मीं से ही नज़र आता है
तेरी नादानियों पर ख़ामोश था मैं,
और तूने मुझे कमज़ोर समझ लिया..
बहुत ग़ुरूर है दरिया को अपने होने पर
जो मेरी प्यास से उलझे तो धज्जियाँ उड़ जाएँ
पीने पिलाने की क्या बात करते हो,
कभी हम भी पिया करते थे,
जितनी तुम जाम में लिए बैठे हो,
उतनी हम पैमाने में छोड़ दिया करते थे!!