ना कर तू इतनी कोशिशे,मेरे दर्द को समझने की,पहले इश्क़ कर,फिर ज़ख्म खा,फिर लिख दवा मेरे दर्द की।
ना कर तू इतनी कोशिशे,
मेरे दर्द को समझने की,
पहले इश्क़ कर,
फिर ज़ख्म खा,
फिर लिख दवा मेरे दर्द की।
दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभाने वाला
वही अंदाज़ है ज़ालिम का ज़माने वाला
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले
कोई ख़ामोश ज़ख़्म लगती है
ज़िंदगी एक नज़्म लगती है
शाख़ों से टूट जाएँ वो पत्ते नहीं हैं हम
आँधी से कोई कह दे कि औक़ात में रहे