काबा किस मुँह से जाओगे ‘ग़ालिब’शर्म तुमको मगर नहीं आती
बे-ख़ुदी बे-सबब नहीं ‘ग़ालिब’कुछ तो है जिस की पर्दा-दरी है
इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश है ‘ग़ालिब’कि लगाए न लगे और बुझाए न बुझे
हम तो फना हो गए उसकी आंखे देखकर गालिब,
न जाने वो आइना कैसे देखते होंगे।
खैरात में मिली ख़ुशी मुझे अच्छी नहीं लगती ग़ालिब,
मैं अपने दुखों में रहता हु नवावो की तरह।
जब लगा था तीर तब इतना दर्द न हुआ ग़ालिब
ज़ख्म का एहसास तब हुआ
जब कमान देखी अपनों के हाथ में।