रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायलजब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है
इश्क़ ने ‘ग़ालिब’ निकम्मा कर दियावर्ना हम भी आदमी थे काम के
हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिनदिल के खुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख्याल अच्छा है
बे-वजह नहीं रोता इश्क़ में कोई ग़ालिब
जिसे खुद से बढ़ कर चाहो वो रूलाता ज़रूर है
लफ़्ज़ों की तरतीब मुझे बांधनी नहीं आती “ग़ालिब”।
हम तुम को याद करते हैं सीधी सी बात है।