‘ग़ालिब’ बुरा न मान जो वाइज़* बुरा कहेऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे
इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतश ‘ग़ालिब’कि लगाए न लगे और बुझाए न बने
इश्क़ ने ‘ग़ालिब’ निकम्मा कर दिया
वर्ना हम भी आदमी थे काम के
उम्र भर ग़ालिब यही भूल करता रहा ..धुल था चहरे पे और आईना साफ़ करता रहा!!
दिल ए नादाँन तुझे हुआ क्या है !!!आख़िर ईस दर्द कि दवा क्या हैं ॥॥॥
कौन पूछता है पिंजरे में बंद पक्षी को ग़ालिब ..याद वही आते है जो छोड़कर उड़ जाते है !!