जाने वो कैसे मुकद्दर की किताब लिख देता है,
सांसें गिनती की और ख्वाहिशें बेहिसाब लिख देता है!
जुदाइयाँ तो मुक़द्दर हैं फिर भी जान-ए-सफ़र,
कुछ और दूर ज़रा साथ चल के देखते हैं!
ज़िन्दगी के सफ़र में मैंने अब तक तो यही जाना है,
ख्वाहिशों का हाथ अक्सर मजबूरियों ने थामा है!
ये भी है कि मंजिल तक पहुंचे नहीं हैं हम,
ऐसा भी नहीं है कि सफर ख़त्म हो गया।
जूते महंगे हैं अब पर छोटा सा सफर है,
एक तरफ ऑफिस, दूसरी तरफ घर है।
यू ही हाथ थाम मेरा साथ निभाना,
जिंदगी का सफर संग है तेरे बिताना।