ग़ुरबत न दे सकी मेरे ज़मीर को शिकस्त,
झुक कर किसी अमीर से मिलते नहीं हैं हम!
पीता हूँ जितनी उतनी ही बढ़ती है तिश्नगी,साक़ी ने जैसे प्यास मिला दी हो शराब में।
सवाल तो तेरी तवज्जो का है साकी,
हम तो ये भी न बता पाएं कि प्यासे थे हम!
बैठा हूँ मयखाने में
गम मिटा रहा हूँ
मैं भी क्या अजीब हूँ
शिकायत ख़ुदा से है
मैं साकी को बता रहा हूँ
निगाहे-मस्त से मुझको पिलाये जा साकी,
हसीं निगाह भी जामे-शराब होती है।
बात साक़ी की न टाली जाएगी
कर के तौबा तोड़ डाली जाएगी